तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप
सच एक बहुत बड़ा तिलिस्म है। कहा जाता है कि सच बहुत कड़ुवा होता है लेकिन उसका परिणाम मीठा होता है। यह भी कहा जाता है कि सच अर्थात सत्य की सदैव जीत होती है। ‘सच को परेशान किया जा सकता है, पराजित नहीं’ – एक कहावत यह भी है। कई धर्म ग्रंथ कहते हैं कि सच शाश्वत है तो कई ऐसी धार्मिक विचारधाराएँ भी हैं जो यह कहती हैं कि सच कभी भी अपरिवर्तनशील नहीं हो सकता।
एक परिस्थिति का सच दूसरी परिस्थिति में झूठ भी बन सकता है। योगीश्वर और गीता के प्रणेता भगवान श्रीकृष्ण की शिक्षा के अनुसार हर परिस्थिति का अपना सत्य है। मनुष्य में परिस्थिति विशेष के सत्य को पहचानने की योग्यता ही विवेक है और उस विवेक के अनुसार कार्य करना ही धर्म है। दूसरी ओर इसी दुनिया में सच को बार-बार हारते देखा गया है। न्याय की देवी की आँखों पर पट्टी बंधी है और सच को देखना उसे गवारा नहीं है। हज़ारों-लाखों सच्चे लोग प्रतिदिन इसी अपाहिज न्यायव्यवस्था की भेंट चढ़ जाते हैं। नित-प्रति की ज़िंदगी में हज़ार बार सच हारता है। सच और झूठ के प्रति सबके अपने-अपने नज़रिये हैं और हर नज़र में सच और झूठ के अलग ही रंग और महक हैं।
मेरे प्रिय मित्र और साहित्यानुरागी श्री रियाज़ अहमद ने जब अपने जीवन का ‘सच’ से जुड़ा एक रोचक किस्सा शेयर करते हुये उर्दू शायरी में सच के ‘सच’ को परखने का सुझाव दिया तो मुझे लगा कि उर्दू शायरी का यह सफ़र भी ख़ासा दिलचस्प व अभूतपूर्व होगा। तो आइये, इस आलेख के माध्यम से देखते हैं कि ज़िंदगी सच और झूठ के मुहानों के बीच कैसे चलती है और उर्दू शायरी के चश्मे से ये दृश्य कैसे नज़र आते हैं।
मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी का जन्म सन् 1747 में लखनऊ में हुआ और सन् 1824 में उनका निधन हुआ। उनका 18वीं सदी के बड़े शायरों में शुमार किया जाता है। वे मीर तक़ी ‘मीर’ के समकालीन थे। सच पर उनका यह शेर देखिये –
“कहिए जो झूट तो हम होते हैं कह के रुस्वा,
सच कहिए तो ज़माना यारो नहीं है सच का।”
असदुल्लाह खाँ यानी मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म सन् 1797 में आगरा में हुआ। वे दुनिया में उर्दू के प्रतिनिधि थे। सच कहा जाये तो उर्दू शायरी को हर आम अादमी की ज़ुबान बनाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी कई मायनों में उर्दू शायरी की सर्वमान्य मानक हैं। उनके सैकड़ों अशआर आज मुहावरों की शक्ल ले चुके हैं। उनके मुख़्तलिफ़ (विभिन्न) अशआर का इस्तेमाल करते हुये किसी हद तक मुकम्मल (पूरी) गुफ़्तगू (वार्तालाप) भी मुनासिब (संभव) है। ‘दीवान-ए-ग़ालिब’ उर्दू शायरी का सबसे मशहूर दीवान है। उनकी मृत्यु सन् 1869 में हुई। सच पर उनका यह मशहूर शेर देखिये –
सादिक़ हूँ अपने क़ौल का ‘ग़ालिब’ ख़ुदा गवाह
कहता हूँ सच कि झूट की आदत नहीं मुझे।
‘सादिक़’ का अर्थ है – ईमानदार व ‘क़ौल’ का अर्थ है – ‘वचन या बात’।
आरज़ू लखनवी का जन्म वर्ष 1873 में लखनऊ में हुआ तथा उनका इंतक़ाल वर्ष 1951 में कराची, पाकिस्तान में हुआ। वे मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी के समकालीन थे। उनका शुमार प्रख्यात पूर्व-आधुनिक शायरों में किया जाता है। सच पर उनका यह मशहूर शेर देखिये –
“किस काम की ऐसी सच्चाई, जो तोड़ दे उम्मीदें दिल की,
थोड़ी सी तसल्ली हो तो गई, माना कि वो बोल के झूठ गया।”
सिकंदर अली यानी जिगर मुरादाबादी का जन्म सन् 1890 में वाराणसी में हुआ था और उनका निधन सन् 1960 में गोंडा में हुआ। वे अपने समय के सबसे लोकप्रिय शायर थे। वास्तव में वे उर्दू शायरी का स्वयं में एक स्कूल थे जहाँ शायरी अनेक नये रंग और नयी खुश्बुओं से परिचित हुई। उनका मानना है कि हक़िक़त यानी सच को साबित करने की आवश्यकता नहीं होती है, दिल उसे खुद-ब-खुद मानने को मजबूर हो जाता है –
“सदाक़त हो तो दिल सीनों से खिंचने लगते हैं वाइज़,
हक़ीक़त ख़ुद को मनवा लेती है मानी नहीं जाती।”
अंजुम रूमानी का वास्तविक नाम फ़ज़ल दीन था और वे सन् 1920 में सुलतानपुर लोधी रियासत कपूरथला (पूर्वी पंजाब) में पैदा हुये और बाद में लाहौर, पाकिस्तान चले गये। वे एक बेहतरीन शायर थे और उन्होंने इकबाल की फ़ारसी रचनाओं का उर्दू में पद्यात्मक अनुवाद भी किया। उनकी ग़ज़लों का संग्रह ‘कू-ए-मलामत’ व नातों का संग्रह ‘सना और तरह की’ के नाम से प्रकाशित हुये। वर्ष 2001 में उनका इंतक़ाल हो गया। सच का सौदा आजकल घाटे का सौदा ही है। सच पर उनका शेर पेश है –
“सच के सौदे में न पड़ना कि ख़सारा होगा।
जो हुआ हाल हमारा सो तुम्हारा होगा ।।”
हफ़ीज़ मेरठी का जन्म सन् 1922 में हुआ और उनका इंतक़ाल सन् 2000 में हुआ। वे अपने समय के बेहद लोकप्रिय शायर थे। ‘शेर-ओ-शुऊर’ उनकी प्रसिद्ध किताब है। दुनिया सच सुनने की आदी नहीं है और न ही सच की तरफ़दारी ही करती है। सच पर उनका यह खूबसूरत शेर देखिये –
“रात को रात कह दिया मैं ने,
सुनते ही बौखला गई दुनिया।”
उम्मीद फ़ाज़ली का जन्म बुलंद शहर (उत्तर प्रदेश) में सन् 1923 में हुआ। वे प्रसिद्ध भारतीय शायर निदा फ़ाज़ली के बड़े भाई थे। वे शकील बदायूँनी और बाद में नूर नाहवी के शागिर्द रहे। पाकिस्तान बनने के बाद वे पाकिस्तान चले गये और कराची में निवास करने लगे। सन् 2005 में उनका इंतक़ाल हो गया। ‘दरिया आख़िर दरिया है’ उनका दीवान है। आज के ज़माने में सच की जो सूरत-ए-हाल है, उस पर एक शानदार शेर –
“आसमानों से फ़रिश्ते जो उतारे जाएँ,
वो भी इस दौर में सच बोलें तो मारे जाएँ।”
कमाल अहमद सिद्दीक़ी का जन्म वर्ष 1926 में हुआ और वर्ष 2013 में उनका इंतक़ाल हुआ। वे प्रसिद्ध भारतीय शायर थे। ‘अहंग-ओ-उरूज़’ उनकी प्रसिद्ध किताब है। कुछ लोग सच के साथ कभी-कभी मौकापरस्ती भी जोड़ देते हैं और इसे व्यापार का ज़रिया बना लेते हैं। सच पर उनका यह शेर देखिये –
“कुछ लोग जो ख़ामोश हैं ये सोच रहे हैं,
सच बोलेंगे जब सच के ज़रा दाम बढ़ेंगे।”
हिमायत अली शायर का जन्म सन् 1926 में हुआ और सन् 2019 में उनकी मृत्यु हुई। वे पाकिस्तानी शायर थे और टोरंटो, कनाडा में निवास करते थे। वे मशहूर शायर व नग़मानिगार थे और पाकिस्तान सरकार ने उन्हें ‘एवार्ड अॉफ परफ़ार्मेंस’ से भी नवाज़ा है। ‘आईना दर आईना’, ‘हर्फ़ हर्फ़ रोशनी’ व ‘आग में फूल’ उनकी चर्चित पुस्तकें हैं। कई बार सच के लिये उपयुक्त शब्द नहीं मिलते हैं और ज़ुबान की सीमितिता के कारण सत्य का संप्रेषण अधूरा रह जाता है। इस पहलू पर उनका यह शानदार शेर देखने योग्य है –
“मैं सच तो बोलता हूँ मगर ऐ ख़ुदा-ए-हर्फ़,
तू जिस में सोचता है मुझे वो ज़बान दे।”
कृष्ण बिहारी नूर उर्दू शायरी में लखनऊ की संस्कृति के प्रतिनिधि शायर थे। वे उत्तर आधुनिक शायरी के एक दृढ़ स्तंभ थे। फ़िराक़, चक़बस्त आदि की ग़ैर मुस्लिम शायरों की परंपरा को नूर ने और भी मजबूत किया। ‘सुख-दुख’, ‘तजल्ली-ए-नूर’ और ‘समंदर मेरी तलाश में है’ उनके प्रसिद्ध दीवान हैं। सच पर बहुत सी बंदिशें हैं लेकिन झूठ बेलगाम है। क्या खूबसूरत शेर निकाला है उन्होंने इस पहलू पर –
“सच घटे या बढ़े तो सच न रहे,
झूट की कोई इंतिहा ही नहीं।”
शहज़ाद अहमद लाहौर, पाकिस्तान के एक प्रतिष्ठित शायर थे। उनका जन्म सन् 1932 में एवं इंतक़ाल 2012 में हुआ। ‘अधखुला दरीचा’ उनका चर्चित दीवान है। कभी-कभी सच को सच कहना भी बायस-ए-रुसवाई हो जाता है। ऐसे समय में चुप्पी साध लेना भी एक कला है। यह शेर देखिये –
“वाकिआ कुछ भी हो सच कहने में रुसवाई है,
क्यों न चुपचाप रहूँ, अहल-ए-नज़र कहलाऊँ।”
क्रमशः